अनकही सी आरज़ू, गूँज जो गवाह न हो,
खामोशी की गहराई में, जो कहा वो सुना न हो।
ज़िंदगी के आईने में, अक्सर लोगों ने रंग बदला है,
जब भी मैं गिरते गिरते संभला, लोगों के लिए वो मसला है।
तलाश कैसी है वो पता नहीं, ढूँढा बहुत पर दिल के दराज़ में वो मिला नहीं,
इस दिल के सन्नाटे में भी, तलाशते रहने का कोई गिला नहीं।
ज़िंदगी की राहों में, हर मोड़ पे है एक ख्वाब,
कैफियत की उलझन, जैसे बांधे हो सिलवटों का नक़ाब।
छूटे अपने, टूटे सपने, ज़िंदगी में जो चाहा वो मिला नहीं,
ग़म के आगे चला हूँ ऐसे, नसीब से अब कोई गिला नहीं।
रात के इस पहर में, जब उम्मीदें भी सोती हैं,
मेरे दिल के कोने में, आरज़ू फिर भी रोशन होती हैं।
अनकही सी आरज़ू, गूँज जो गवाह न हो,
खामोशी की गहराई में, जो कहा वो सुना न हो…