ये बुझी बुझी सी शाम, सहमी हुई सी परछाइयाँ दिल तलाशे उजाला, मगर सुबह अभी हुई नहीं… कहीं के अँधेरे, कहीं के उजाले, हर एक शख्स इस सफर में है अपने सच को संभाले दिल-ए-आरज़ू की धुन पर, पहुँचना वहाँ है जहाँ हैं ज़हन के उजाले… एक रोशनी थी जो थी दूर से चमकती, पास आया तो देखा, वो रोशनी तो ख़ुद के साये में गुम थी ये बुझी बुझी सी शाम, सहमी सी परछाइयाँ दिल ने कहा, यह आख़िरी दुआ है, मगर वो ख़ुद के फ़ैसलों से...
परछाइयों का उजाला
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