मोहब्बत एक ऐसा लफ्ज़ था, जिसपे ऐतबार न था मेरा,
जहां भी जिसको देखता, वो तलाश-ए-मोहब्बत कर रहा।
मैं सोचता रहा यही, कि क्यों करूँ मोहब्बत पे यक़ीं,
खुशनसीब होंगे वो जिन्हें मोहब्बत मिली, हमारे माज़ी ने सिखाया, ये हमारे बस की नहीं।
वो इश्क़ की इंतहा, वो वादों का सिलसिला, वो कशमकश पाने की, बेसब्री का वो फलसफा,
न जाने इस दौर का अलग ही है वाकया, अहसास से परे सब कर रहे अमली मशवरा।
दिलों का ये कारोबार, मोहब्बत के बाज़ार में, जज्बात बेचने को लोग कहते अपने इख्तियार में,
आरज़ी ताल्लुक एक मौजूदा ज़माने का ख्याल है, अपना हो फ़ायदा, न सोचे दूसरे का क्या हाल है।
अब जज़्बातों का हिसाब, बही-खाते में लिखा जाता है, दिलों के आवाज़ पे दिमाग पहरा लगाता है,
लोगों को मैं देखता और सोचता घड़ी-घड़ी, शायद अब मोहब्बत को तलाशने मोहब्बत ही कहीं चली।
इश्क़ की उस मासूम दास्ताँ का अब कोई नहीं गवाह, जिस इश्क़ को मैं जानता वो किताबों में था लिखा।
ज़माने ने मेरे यक़ीं को न जाने क्या क्या कहा, तू बता इस दौर में, तेरा तजुर्बा क्या रहा?
मैं आदमी बुरा नहीं, बेज़ार ना मोहब्बत से हुआ, ये बोलना सही नहीं कि मोहब्बत मुझे कभी हुई नहीं,
राह में मिला कोई, जिसकी आँखों में नूर था, बातों में सादगी, उसकी शख्सियत में थी ज़िंदादिली।
रूहानी था उससे ताल्लुक, उसके साथ में सुकून था, लम्हा वो जो भी था, काफी हसीन था।
मुझे लगा था दिल मेरा, दीवारों से है घिरा, मेरे माज़ी के बाद इस दौर में मोहब्बत में क्यों पड़ा।
मैं रुक गया ये सोचकर, ये नई सी थी जगह, नया था जज़्बाते-आसमां,
वो शख्स था सही मिला, वक़्त साथ न था मेरा।
कायफियत-ए-उलझन उसकी थी, इल्म तो मुझे भी था,
अदब के साथ बेहतर था, अलग हो मेरा रास्ता, यादों को संजो कर चल जैसे हो एक टुकड़ा धूप का।
दिल की इस राह में, मोहब्बत है तू तलाशता,
अमली-दिमागी से निकल, मिलेगा तुझको रास्ता।
अंधेरों के सवालों में जिस मोहब्बत को तू है खोजता,
दिल को आवाज़ दे, शायद जवाब तुझमें ही हो गुमशुदा।
~ अनीश