ये बुझी बुझी सी शाम,
सहमी हुई सी परछाइयाँ
दिल तलाशे उजाला,
मगर सुबह अभी हुई नहीं…
कहीं के अँधेरे, कहीं के उजाले,
हर एक शख्स इस सफर में है अपने सच को संभाले
दिल-ए-आरज़ू की धुन पर,
पहुँचना वहाँ है जहाँ हैं ज़हन के उजाले…
एक रोशनी थी जो थी दूर से चमकती,
पास आया तो देखा, वो रोशनी तो ख़ुद के साये में गुम थी
ये बुझी बुझी सी शाम, सहमी सी परछाइयाँ
दिल ने कहा, यह आख़िरी दुआ है, मगर वो ख़ुद के फ़ैसलों से ही रुख़्सत हुआ है…
सफ़र के राज़ अब खुलने लगे हैं,
मगर ख़ुद के उजाले में अब भी अंधेरों की रोशनी है
चलो, एक नए सफ़र की तलाश करें हम,
अंधेरों की रोशनी में, ख़ुद से मिले हम…
सच वो है जो दिल के किसी कोने में छुपा है,
सहमा सा है वो पर शायद अब थोड़ा जगा है
वो रास्ते जो पहले धुँधले से थे,
अब उसमें भी एक नई रोशनी है, जिसे हर एक सफ़र में अपने ही साये से मिलने पर यक़ीं है…
ये बुझी बुझी सी शाम,
सहमी हुई सी परछाइयाँ
दिल तलाशे उजाला,
मगर सुबह अभी हुई नहीं…